हिन्दू धर्म में पितृऋण से मुक्ति के लिए संतान की उत्पत्ति पर बल दिया गया है। संतति के बिना जीवन अधूरा है। संतान का जन्म वंश परम्परा की सतता के लिए भी आवश्यक है, तो वहीं लौकिक एवं पारलौकिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए भी संतति की आवश्यकता होती है। पुरुष और महिला के जीवन की पूर्णता बिना संतति के सम्भव नहीं है। संतानहीनता एक अभिशाप के रूप में देखा जाता है। संतानहीन दम्पती के मन को यह कचोटती रहती है कि वह पिता और माता नहीं बन पाए। आधुनिक युग में चिकित्सकीय उपचार एवं प्रक्रियाओं (आईवीएफ आदि) के माध्यम से संतानहीन दम्पतियों को खुशियाँ मिलने लगी हैं, परन्तु उनकी सफलता का प्रतिशत अत्यन्त न्यून रहता है। यह देखा गया है कि आध्यात्मिक उपायों के साथ चिकित्सकीय उपचार लिया जाए, तो उसकी सफलता का प्रतिशत बढ़ जाता है।
जहाँ तक संतानहीनता से मुक्ति के लिए आध्यात्मिक उपायों का प्रश्न है, तो उसमें मुख्यरूप से श्रीकृष्ण एवं शिव-पार्वती-गणेश की उपासना सर्वप्रमुख मानी जाती है। संतानगोपालमंत्र का जप एवं संतानगोपालस्तोत्र का पाठ संतान प्राप्ति के संबंध में सर्वाधिक प्रचलित उपाय के रूप में जाना जाता है। संतानगोपाल वस्तुत: भगवान् श्रीकृष्ण का वह स्वरूप है, जिसकी उपासना संतान प्राप्ति हेतु की जाती है। प्रतिदिन एक माला मंत्रजप तथा एक बार संतानगोपालस्तोत्र का पाठ संतति प्राप्ति के सम्बन्ध में सर्वाधिक प्रचलित उपाय के रूप में देखा जा सकता है। व्यवहार में यह कारगर उपाय भी है।
जहाँ तक रुद्राक्षों का सम्बन्ध है, तो संततिसुख प्राप्ति की दृष्टि से गर्भगौरी रुद्राक्ष का प्रचलन है। जैसा कि आप जानते हैं। रुद्राक्ष की उत्पत्ति भगवान् शिव के नेत्रों से हुई है। इसलिए रुद्राक्ष शिवोपासना में विशेष कारगर माने जाते हैं। उनमें से गर्भगौरी रुद्राक्ष विशेष रुद्राक्ष जो विशिष्ट मनोकामना की पूर्ति यानी सन्तति सुख की प्राप्ति एवं गर्भ की रक्षा के लिए जाना जाता है। गर्भगौरी रुद्राक्ष में दो रुद्राक्ष प्राकृति रूप से जुड़े होते हैं, जिनमें से एक रुद्राक्ष बड़ा होता है और एक छोटा होता है। बड़ा रुद्राक्ष माता पार्वती का प्रतीक जाना जाता है, वहीं छोटा रुद्राक्ष स्वामी कार्तिकेय और श्रीगणेश का प्रतीक माना जाता है। इस तरह गर्भगौरी रुद्राक्ष सम्पूर्ण शिव परिवार की कृपा प्राप्ति के साधन के रूप में देखा जा सकता है।
यह देखा गया है कि संतानगोपालमंत्र का जप, संतानगोपालस्तोत्र का पाठ और गर्भगौरी रुद्राक्ष को धारण करना यह मिलकर एक कारगर या प्रभावशाली उपाय के रूप में होता है।
चिकित्सकीय उपचार के साथ-साथ कुछ आध्यात्मिक उपाय करने से चिकित्सकीय उपचारों की सफलता की सम्भावना बढ़ जाती है। यदि चिकित्सकीय उपायों के साथ-साथ गर्भगौरी रुद्राक्ष धारण किया जाए और संतानगोपालमंत्र का जप एवं संतानगोपाल स्तोत्र का नित्य पाठ किया जाए, तो व्यवहार में इसके अच्छे परिणाम देखने को मिले हैं।
संतानगोपालमंत्र
स्नानादि से निवृत्त होकर पूर्व या उत्तराभिमुख बैठकर निम्नलिखित मंत्र से भगवान् गणेशजी का स्मरण करना चाहिये-
गजाननं भूतगणादिसेवितं कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणम्।
उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपङ्कजम् ॥
उसके पश्चात् हाथ में जल लेकर निम्न संकल्प वाक्य बोलना चाहिए –
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः नमः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेत-वाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलि-प्रथमचरणे भूर्लोके जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्या-वर्तैकदेशान्तर्गते .... (अपने नगर का नाम उच्चारित करें) स्थाने .... वैक्रमाब्दे .... (संवत्सर का नाम उच्चारित करें) संवत्सरे .... (महीने का नाम उच्चारित करें) मासे .... पक्षे
.... तिथौ .... वासरे शुभमुहूर्ते गोत्र: शर्मा / वर्मा / गुप्तोऽहम् अस्यामेव जन्मनि अस्यामेव पाणिग्रहीत्यां धर्मपत्न्यां भगवद्भक्तस्य सदाचारनिष्ठस्य सनातनधर्मनिरतस्य चिरञ्जीविनः वंशप्रवर्तकस्य स्वात्मजस्योत्पत्त्यर्थं वंशानुवृध्यर्थं सन्ततिप्रतिबन्धकग्रहजन्यदोषनिवृत्तिपूर्वकं श्रीराधामाधव-प्रीत्यर्थं च सन्तानगोपालमन्त्रस्य जपं सन्तानगोपालस्तोत्र-पाठञ्च करिष्ये।
ऐसा कहते हुए जल को एक खाली पात्र में छोड़ दें।
अब पुन: हाथ में जल लेकर निम्नलिखित विनियोग पाठ करें –
ॐ अस्य श्रीसन्तानगोपालमन्त्रस्य श्रीनारद ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीकृष्णो देवता, ग्लौं बीजम् नमः शक्तिः, पुत्रार्थे जपे विनियोगः ।
अब यथाविधि अंगन्यास
करें –
देवकीसुत गोविन्द हृदयाय नमः (इस मंत्र को बोलकर दाहिने हाथ की मध्यमा, अनामिका और तर्जनी अंगुलियोंसे हृदय का स्पर्श करे)।
वासुदेव जगत्पते शिरसे स्वाहा (इस मंत्र को बोलकर उसी प्रकार सिर का स्पर्श करे)।
देहि मे तनयं कृष्ण शिखायै वषट् (इस मंत्र को बोलकर दाहिने हाथ के अँगूठेसे शिखाका स्पर्श करे)।
त्वामहं शरणं गतः कवचाय हुम् (इस मंत्र को बोलकर दाहिने हाथ की पाँचों अंगुलियों से बायीं भुजा का और बायें हाथ की पाँचों अंगुलियों से दाहिनी भुजा का स्पर्श करे)।
ॐ नमः अस्त्राय फट् (इस मंत्र को बोलकर दाहिने हाथ को सिर के ऊपर से बायीं ओर से पीछे की ओर ले जाकर दाहिनी ओर से आगे की ओर ले आये और तर्जनी तथा मध्यमा अंगुलियों से बायें हाथ की हथेली पर ताली बजाएँ)।
अब हाथ में पुष्प लेकर भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान करे-
वैकुण्ठादागतं कृष्णं रथस्थं करुणानिधिम्।
किरीटिसारथिं पुत्रमानयन्तं परात्परम्॥
आदाय तं जलस्थं च गुरवे वैदिकाय च।
अर्पयन्तं महाभागं ध्यायेत् पुत्रार्थमच्युतम् ॥
पार्थसारथि अच्युत भगवान् श्रीकृष्ण करुणा के सागर हैं। वे जल में डूबे हुए गुरु-पुत्र को लेकर आ रहे हैं। वे वैकुण्ठ से अभी-अभी पधारे हैं और रथपर विराजमान हैं। अपने वैदिक गुरु सांदीपनि को उनका पुत्र अर्पित कर रहे हैं-मैं पुत्र की प्राप्ति के लिये इस रूप में महाभाग भगवान् श्रीकृष्णका चिन्तन करता हूँ।
अब निम्नलिखित मंत्र का जप करना चाहिए –
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ॥
वैसे तो इस मंत्र की पुरश्चरण संख्या तीन लाख है, परन्तु इसे न्यूनतम एक माला प्रतिदिन जप करना चाहिए। माला तुलसी या पुत्रजीवा की ले सकते हैं।