धन्वन्तरि जयन्ती
कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी को आयुर्वेद के जन्मदाता भगवान् धन्वन्तरि का प्राकट्य हुआ था। इस वर्ष कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी 10 नवम्बर को मध्याह्न में आ रही है तथा 11 नवम्बर को सूर्योदयकालिक होकर मध्याह्न में 13:58 बजे समााप्त होगी। इसलिए धन्वन्तरि जयन्ती अगले दिन अर्थात् 11 नवम्बर को मनाई जाएगी और उस दिन प्रातःकाल अथवा मध्याह्न में धन्वन्तरि देवता का पूजन किया जाना शास्त्रसम्मत है। ये भगवान् विष्णु के अवतार एवं आरोग्य के देवता माने जाते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को समुद्र मन्थन के दौरान धन्वन्तरि का प्राकट्य हुआ था। इसीलिए इस तिथि को धन्वन्तरि जयन्ती के रूप में भी मनाया जाता है। इस दिन भगवान् धनवन्तरि की पूजा की जाती है और उनसे आरोग्य की कामना की जाती है।
देव-धन्वन्तरि काे आरोग्य का देवता कहा गया है। कार्तिक त्रयोदशी (धनतेरस) को देव धन्वन्तरि के पूजन का विधान मिलता है। उल्लेख मिलता है कि वैदिक काल में जो स्थान अश्विनी को प्राप्त था, वही स्थान पौराणिक काल में देव धन्वन्तरि को प्राप्त था। धर्म-कथाओं में वर्णन मिलता है कि भगवान् धन्वन्तरि का पृथ्वी लोक पर अवतरण समुद्र मंथन के समय हुआ। शरद् पूर्णिमा को चन्द्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को भगवान् धन्वन्तरि का अवतरण हुआ था। परम्परानुसार आयुर्वेद के आदि आचार्य अश्विनी कुमार माने जाते हैं। अश्विनी कुमारों से देवराज इन्द्र ने यह विद्या प्राप्त की और देवराज इन्द्र ने देव धन्वन्तरि को यह विद्या प्रदान की थी।
एकदा देवराजस्य दृष्टिर्निपतिता भुवि।
तत्र तेन नर दृष्टा व्याधिभिर्भृशपीडिता:।।
तान्दृष्टवा हृदयं तस्य दयया परि पीडितम्।
दयार्द्रहृदय: शक्रो धन्वन्तरिमुवाच ह।।
धन्वन्तरे सुरश्रेष्ठ भगवन्किंचिदुच्यते।।
योग्यो भवसि भूतानामुपकारपरो भव।
उपकाराय लोकानां केन किं न कृतं पुरा।
त्रैलोक्याधिपतिर्विष्णुरभुन्मत्स्यादिरूपवान्।।
तस्मात्त्वं पृथिवी याहि काशीमध्ये नृपो भव।।
प्रतीकाराय रोगाणामायुर्वेदं प्रकाशय।
आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ भावप्रकाश में धन्वन्तरि के अवतार की कथा इस प्रकार है :
एक समय देवराज इन्द्र ने देखा कि पृथ्वी के प्राणी रोगों से अत्यन्त पीड़ित हैं, तब प्राणियों की पीड़ा नष्ट करने के लिए दयार्द्र होकर उन्होंने धन्वन्तरि को पृथ्वी पर काशीपुरी का राजा होने को कहा और आयुर्वेद का प्रचार करने के लिए उन्हें आयुर्वेद का उपदेश दिया। तत्पश्चात् धन्वन्तरि ने काशी में क्षत्रिय राजा के घर जन्म लिया और वे दिवोदास नाम से भूमण्डल में विख्यात हुए।
वे बालपन से ही परम वैरागी होकर दुष्कर तप में प्रवृत्त हो गए थे, किन्तु प्रजापति ब्रह्मा की आज्ञा से उन्होंने राजा बनना स्वीकार किया। काशीराज दिवोदास (धन्वन्तरि) आयुर्वेद के साथ ही सभी शास्त्रों के भी ज्ञाता थे। उन्होंने जीव मात्र के कल्याण की कामना से अपने नाम से ही ‘धन्वन्तरि संहिता’ नामक ग्रन्थ रत्न का प्रणयन किया।
विश्वामित्र आदि ॠषियों ने अपनी ज्ञान दृष्टि से जान लिया था कि काशीराज दिवोदास साक्षात् धन्वन्तरि हैं, तब उन्होंने अपने पुत्र सुश्रुत को उनसे आयुर्वेद की शिक्षा ग्रहण करने के लिए कहा। सुश्रुत 100 मुनि पुत्रों के साथ उनके पास गए। काशीराज धन्वन्तरि ने उन सभी को अष्टांग आयुर्वेद का उपदेश दिया। उनके शिष्यों में सुश्रुत विशेष शिष्य थे। उनके द्वारा रचित ग्रन्थ ‘सुश्रुत संिहता’ के नाम से प्रसिद्ध है। भगवान् धन्वन्तरि ने लोक कल्याण के लिए अवतार लिया था।
एक अन्य कथा के अनुसार एक समय देवराज इन्द्र की दृष्टि मृत्युलोक पर पड़ी। वहाँ अनेक मनुष्यों को व्याधियों से पीड़ित देखकर उन्होंने धन्वन्तरि देव से कहा, “हे सुरोत्तम! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ। आप योग्य हैं, अत: प्राणियों के उपकार के लिए तत्पर होइए। आप भूतल पर काशी नरेश होकर प्राणी मात्र के रोगों को नष्ट कर आयुर्वेद को प्रकाशित करें।” लोक हितार्थ सुरशार्दूल (देवराज इन्द्र) ने सर्व प्राणियों के कल्याण की इच्छा से धन्वन्तरि देव को सम्पूर्ण आयुर्वेद से परिपूर्ण कर दिया।
भाव प्रकाश के एक रेखांकित चित्र में देवराज इन्द्र सिंहासन पर आसीन हैं और धन्वन्तरि देव एक हाथ में अमृत कलश और अन्य में औषध लिए देवराज इन्द्र से चर्चा करते प्रतीत हो रहे हैं। देवराज अपने वैभव के साथ चित्रित हैं और धन्वन्तरि देव के शीश पर सुन्दर मुकुट शोभायमान है। हाथ में औषध और अमृत घट धारण किए हुए हैं। एक अन्य चित्रांकन में ब्रह्मदेव धन्वन्तरि का राज्याभिषेक कर रहे हैं। सभा में देवगणों के साथ ॠषिगण भी विराजमान हैं। सम्पूर्ण सभा वैभव से परिपूर्ण नजर आ रही है।
ॐ नमो भगवते महासुदर्शनाय धन्वन्तरये अमृत-कलश-हस्ताय सर्वभय-विनाशाय-सर्वरोग निवारणाय।
परमदेव भगवान् जिन्हें सुदर्शन वासुदेव धन्वन्तरि, जो अमृत कलश धारण किए, सर्वव्याधिनाशक, तीनों लोकों के स्वामी हैं, उन विष्णु स्वरूप देव धन्वन्तरि को नमन।