सूर्यषष्ठी का व्रत अन्य मनोकामनाओं की पूर्ति के साथ-साथ
पुत्र कामना के लिए भी किया जाता है।
कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सूर्य षष्ठी व्रत होता है। इसे ‘डाला छठ’ भी कहते हैं। यह व्रत पुत्र के होने पर होता है। पुत्र की दीर्घायु के लिए यह किया जाता है। इस व्रत में तीन दिन उपवास किया जाता है। व्रत को करने वाली महिला पंचमी के दिन एक बार अलोना (नमक रहित) भोजन करती है। दूसरे दिन षष्ठी को बिना जल के स्त्रियाँ उपवास रहती हैं। उस दिन संध्याकाल को अर्घ्य दिया जाता है। महिलाएँ तमाम प्रकार के फल, नारियल, केला तथा मिठाई आदि पूजा के लिए ले जाती हैं। घाट पर समस्त महिलाएँ कीर्तन आदि करती हैं तथा कुछ रात्रि गुजरने पर घर आती हैं। रात्रिभर जागरण होता है।
दूसरे दिन प्रात:काल वे पुन: घाट पर जाती हैं तथा नदी अथवा तालाब में स्नान कर गीत गाती हैं। गीत का विषय सूर्य का उगना ही रहता है। सूर्य भगवान् के उदय होने पर अर्घ्य दिया जाता है, तब यह व्रत समाप्त होता है। इस व्रत में षष्ठी को सायंकाल तथा सप्तमी को प्रात:काल सूर्योदय होने पर अर्घ्य देने की परम्परा है।
इस त्योहार से सम्बन्धित कहानी इस भाँति है : एक वृद्ध औरत थी। उसके कोई सन्तान नहीं थी। कार्तिक शुक्ल सप्तमी के दिन उसने यह संकल्प किया कि यदि उसे पुत्र होगा, तो वह सूर्य षष्ठी व्रत करेगी और समस्त नियमों का पालन करेगी। सूर्यदेव की कृपा से उसे पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई, लेकिन उसने व्रत नहीं किया। लड़का विवाह योग्य हो गया फिर भी उसने व्रत नहीं किया। अन्त में उसका विवाह भी हो गया। विवाह करके लौटते समय एक वन में वर-वधू ने डेरा डाला। उस समय वधू ने पालकी में अपने पति को मरा पाया। इससे वह रोने लगी।
नववधू का रोना सुनकर एक वृद्धा उसके पास आई और कहने लगी कि मैं छठी माता हूँ। तुम्हारी सास हरदम मुझे फुसलाती रही है। मेरी पूजा-अर्चना नहीं की। मैं तुम्हारे पति को जिन्दा कर देती हूँ। घर जाकर अपनी सास से इस बारे में अवश्य पूछना।
नववधू ने घर पहुँचकर सास से सब बातें कही। सास ने अपनी भूल स्वीकार की तथा सूर्य षष्ठी (डाला छठ) का व्रत करने लगी। तभी से यह व्रत विख्यात हुआ।
सूर्यषष्ठी प्रमुख रूप से भगवान् सूर्य का व्रत है। यह व्रत बिहार में सर्वाधिक प्रचलित है। इस व्रत में भगवान् सूर्य की पूजा की जाती है। इस व्रत में अस्तगामी एवं उदयगामी सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है और उसकी पूजा की जाती है। इस व्रत का प्रसाद माँगकर खाने का विधान है। स्कन्द पुराण के अनुसार कार्तिक शुक्ल पंचमी को एक बार भोजन करना चाहिए, तदुपरान्त षष्ठी के दिन प्रातःकाल व्रत का संकल्प लेते हुए पूरे दिन निराहार रहना चाहिए। वाक् संयम रखना चाहिए। िफर किसी नदी के किनारे जाकर फल, पुष्प, घृत पक्व नैवेद्य, धूप, दीप आदि से भगवान् सूर्य का पूजन करना चाहिए। रक्त चंदन और रक्त पुष्प भगवान् सूर्य की पूूजा में विशेष रूप से रखने चाहिए। अन्त में ताम्रपात्र में शुद्ध जल लेकर उसमें रोली, पुष्प, अक्षत डालकर उस जल से भगवान् सूर्य को अर्घ्य देना चाहिए।
सूर्यषष्ठी के व्रत में आटे और गुड़ से युक्त ‘ठेकुआ’ विशेष रूप से बनाए जाते हैं, ठेकुआ पर लकड़ी के साँचे से भगवान् सूर्य के रथ के चक्र को अंकित किया जाता है। सूर्य भगवान् के साथ-साथ इस दिन माता षष्ठी की भी पूजा की जाती है। षष्ठी देवी की प्रतिमा बनाकर उसका पूजन किया जाता है। उदयगामी अर्घ्य के पश्चात् उनका विसर्जन किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि पंचमी के सायंकाल से ही घर में माता षष्ठी का आगमन हो जाता है। सूर्यषष्ठी का व्रत अन्य मनोकामनाओं की पूर्ति के साथ-साथ पुत्र कामना के लिए भी किया जाता है।
व्रत-कथा
एक वृद्धा के कोई सन्तान नहीं थी। कार्तिक शुक्ल सप्तमी के दिन उसने संकल्प किया कि यदि उसके पुत्र होगा तो वह व्रत करेगी। सूर्य भगवान् की कृपा से वह पुत्रवती तो हुई, पर उसने व्रत नहीं किया।
लड़के का विवाह हो गया। विवाह से लौटते समय वर-वधू ने एक जंगल में डेरा डाल लिया। तब वधू ने वहाँ पालकी में अपने पति को मरा पाया। वह विलाप करने लगी। उसका विलाप सुनकर एक वृद्धा उसके पास आकर बोली, “मैं छठ माता हूँ। तुम्हारी सास सदैव मुझे फुुसलाती रही है। उसने संकल्प करके भी मेरी पूजा एवं व्रत नहीं किया, किन्तु तुम्हारा विलाप देखकर मैं तुम्हारे पति को जीवित कर देती हूँ। घर जाकर अपनी सास से इस विषय में बात करना।” वर जीवित हो उठा। वधू ने घर जाकर सास से सारी वार्ता कही। सास ने भूल स्वीकार कर ली और उस दिन के बाद से सूर्यषष्ठी का व्रत करने लगी।