Rama Ekadashi [रमा एकादशी व्रत] (सभी का)
कार्तिक कृष्ण पक्ष की एकादशी रमा एकादशी के नाम से जानी जाती है। इस वर्ष यह 09 नवम्बर को पड़ रही है। इस दिन सविधि एकादशी व्रत किया जाता है और सायंकाल में रमा एकादशी व्रत की कथा का श्रवण किया जाता है। इस दिन तुलसी पूजा का विशेष महत्त्व है।

व्रत-कथा
द्वापर युग की बात है। भगवान् श्रीकृष्ण की अनेक रानियाँ थीं। उनमें सत्यभामा भी एक थी। उसे रूपमती होने का घमण्ड था। वह सोचती थी कि उसके रूप के कारण ही श्रीकृष्ण उससे प्रेम करते हैं। एक बार नारद जी श्रीकृष्ण के महल में पधारे, तो सत्यभामा ने नारद जी से कहा कि ऐसा आशीर्वाद दीजिए, जिससे कि अगले जन्म में भी श्रीकृष्ण मुझे पतिरूप में प्राप्त हों। इस पर नारद जी बोले ‘नियम यह है कि जिस वस्तु को इस जन्म में दान किया जाता है, तो अगले जन्म में वह वस्तु उसे प्राप्त होती है। यदि तुम श्रीकृष्ण को दान कर दो, तो अगले जन्म में श्रीकृष्ण तुम्हें पति के रूप में प्राप्त हो जाएँगे।’ सत्यभामा ने नारद जी को श्रीकृष्ण दान में दे दिए। नारद जी जब दान में प्राप्त श्रीकृष्ण को अपने साथ स्वर्ग में ले जाने लगे, तो अन्य रानियों ने उनका रास्ता रोक लिया और कहने लगीं कि हमारा सुहाग हमें वापस दे दो। इस पर नारद जी ने कहा कि ‘एक शर्त पर श्रीकृष्ण को वापस दे सकता हूँ। यदि तुम इनके वजन के बराबर सोना एवं रत्न दे दो, तो मैं इन्हें तुम्हें वापस दे दूँगा।’ नारदजी के इन वचनों को सुनकर उनकी सभी रानियों ने एक तुला लगवा दी और उसमें एक ओर श्रीकृष्ण बैठ गए और दूसरी ओर के पलड़े में उन रानियों ने अपने-अपने आभूषण-रत्नादि रखना आरम्भ किया। उन्होंने अपने समस्त रत्न-आभूषण तुला के पलड़े में रख दिए, किन्तु पलड़ा झुका ही नहीं। रानियाँ बड़ी परेशान हुईं। रुक्मिणी को जब इसका समाचार मिला, तो वे तुलसी पूजा करने के उपरान्त नारद जी के समीप आयीं और उन्होंने तुलसी पूजा से प्राप्त तुलसीदल को तराजू के दूसरे पलड़े में रख दिया। तुलसीदल के प्रताप से तराजू का पलड़ा झुक गया और तुला का वजन बराबर हो गया। नारद जी ने दान में लिए हुए श्रीकृष्ण को रुक्मिणी को सौंप दिया और तुलसीदल को लेकर स्वर्ग चले गए। इस प्रकार तुलसी माता के प्रताप से ही रुक्मिणी एवं अन्य रानियों का सुहाग वापस आया।